मुझे हमेशा यूँ ही लगता था की उसका मन बेतवा के ढाल सा होगा।हमेशा साफ़, भरा और छलछलाता हुआ। चाहे कितना ही सूखा क्यों न आ जाये, पर मन के स्नेह का स्रोत हमेशा लबालब भरा हुआ रहेगा। पर लबालब भरे स्रोत से भी कई बार प्यासा ही लौटना पड़ता है।
उन दिनों दो बड़े बदलाव हो रहे थे मुझमें पहला तो होठों के ऊपर मूछों की लकीर उभर रही थी, और दूसरा मन भीतर एक कहानीकार बेचैन सा करवटें ले रहा था। सो एक दिन उसी धुन में मैं उससे कह बैठा। मैं एक दिन तुम्हारी भी कहानी लिखूंगा धीमरी।
क्या तय हुआ था ? पूर नाम, असली नाम छोटे लल्ला।
अच्छा ठीक है, नैनतारा। अब खुश ?
कहानी लिखना क्या इतना आसान होता है छोटे लल्ला ? बीस-पचीस बरस इंतज़ार करो, जब हमें भूल जाओ, हमारे कने दिमाग पे ज़ोर डालना पड़े तब लिखना।
चलो ये भी तय रहा, सो अब न शक्ल याद न आवाज़।
जाने-अनजाने जिंदगी की तरफ कभी कोई शर्त उछालो तो वो उसे एक ही बार में कैच कर लेती है, लपक लेती है, और फिर हर बीतते समय के साथ उसकी आवाज़ मंद पड़ जाती है पर एक आवाज़ कभी मंद नहीं पड़ी।
यूँ भी ज़िंदगी जो मसौदे तैयार करती है, ख़ाका खींचती है। आदमी की आरज़ू उसे दो कौड़ी का मान सिरे से नकार देती है, धड़े से ख़ारिज कर देती है। और जो चार सतरें चोरी-छुपे आरज़ू किसी लिफ़ाफे में भेजती है, उसे ज़िंदगी बड़ी होशियारी से गायब कर देती है, या पूरा मौजूं ही बदल देती है। आखिर में जीत ज़िंदगी की ही होती है।
उसकी ज़िंदगी के मसौदे उसकी आरज़ू से जीत गए।
………………………
ऐ धीमरी हमारे लड़के का कान बह रहा है कई दिन से ?
जिजी बबूल के फूल सरसों के तेल में पका कर ठंडा तेल दिन में तीन बार डालो, एक दिन में कान बहना बंद।
अच्छा धीमरी और मेरे लड़के का कान दुःख रहा है रात से।
लो बहन ,किसी जच्चा का दूध डाल दो थोडा सा दर्द ये गया वो गया।
धत ! पगली
ऐसे तमाम नुस्खे उसकी अंटी में बंधे रहते थे। बड़ी धीमी-धीमी आवाज़ में एक गीत गया करती थी।
” भौंरा भनर-भनर होय मेरी गुइंयाँ / गजरा लहर-लहर होय मेरी गुइंयाँ
जब मोरे राजा पिया आयें अटरिया / जियरा धुकुर-पुकुर होय मेरी गुइंयाँ “
ऐं छोटे लल्ला, क्या सारी कहानी हम पर ही लिखोगे ? अपनी भी कुछ कहो।
अपनी क्या कहें कुल जमा आठ सतरें लिखे तो हो गयी पूरी कहानी।
ऐसे न बनेगी बात।
अच्छा सुनो। भरा-पूरा परिवार था, बाद में बाप जाते रहे। दिन बदले, थोड़े बिगड़े-थोड़े बने और रफ़्ता-रफ़्ता ज़िंदगी चल निकली।
ये तो कोई बात न हुई। कहानी में ख़ास बातें होती हैं। कुछ ख़ास हो तो बोलो छोटे लल्ला।
ख़ास क्या ? हाँ ज़ब्त बहुत था हमें,होता भी क्यों न ? माँ-बाप को ख़ासा ज़ब्त था। खूब गालियाँ सुनी दोनों ने घर वालों की। पिता ने तो मरने के बाद भी खूब सुनी। पैसे से कमज़ोर आदमी को सबसे ज्यादा मार अपने घर के अन्दर ही सहनी पड़ती है। ये न समझना की हमें प्यार न मिला। बहुत मिला,टूट-टूट मिला पर कम लोगों से। बाकी लोगों से दिली नहीं काम चलाऊ सा मिला। सो यूँ कुछ वाकयों से कुछ लोग दिल से उतर गए। उतरे तो फिर कभी न चढ़े।
अच्छा छोडो हमारी। अपनी पर आओ, ये कहानी तुम्हारी है। बातें मत उलझाओ।
अच्छा ये बताओ तुम वहां से भाग क्यों आयीं ?
बताते हैं सबर रखो। पहले वादा करो हमारी कहानी में एक किस्सा है ,उसका ज़िक्र न करोगे।
पागल हो क्या ? उसका ज़िक्र कैसे न होगा ? सब उसी पर तो टिका है इस कहानी का। वैसे भी आदमी की फ़ितरत होती है, इधर-उधर से जोड़-जाड़ अपनी समझ लायक कुछ ठीक-ठाक सा किस्सा बना ही लेता है।
तुम्हें मालूम ही नहीं , छोटी जिजी जानती हैं सब।
मैं पूछ लूँगा उनसे। समझी।
वो चुप बैठी मेरा चेहरा ताकती रही।
खट से मेरी नींद खुल गयी। सपना ही तो था ये, आँख खुली और हवा हो गया।
……………………………
वो वहाँ से क्यों भाग आई थी ? ये हममें से कोई नहीं जनता था। पर उसे माँ से कई बार ये कहते सुना था।
” जानती हो जिजी कोई औरत दो बातों बिना अपने ठिये से नहीं भागती। अपने पेट और पीठ, या तो पेट की औलाद पर आंच होगी या अपनी पीठ भारी होगी। “
अब सोचता हूँ पीठ तो कभी भारी रही नहीं होगी उसकी। उसके भागने में जरूर पहले वाली बात ही होगी।
माँ से उसकी दोस्ती का किस्सा भी अजीब था। सालों पहले एक दो-तीन बरस की बच्ची के साथ वो हमारी मौसी को आगरा बस-अड्डे पर मिली थी। सो वहां से पहले उनके घर और बाद में हमारे घर आ गई सदा के लिए, और हमारे जीवन में रच-बस गई जैसे गर्मियों की धूप और सर्दियों का कोहरा।
बाद में समय की दौड़ से क़दम मिलाने के लिए हम भी बाहर चले गए। महीनों घर नहीं आते थे, जो कभी आते भी तो अपने-अपने में मश्गूल रहते थे।
एक बार कॉलेज की छुट्टियों में जब घर गया तो उसकी बेटी को न पा कर बड़ा आश्चर्य हुआ मुझे।
मीना कहाँ है? मैंने पूछा।
चली गयी।
कहाँ ?
अपने सासरे और कहाँ ?
ऐं ! पागल है क्या ? ब्याह होता तो हमें पता न चलता क्या ?
हमारे सासरे गयी थी, वहीं हो गया।
कुल तेरह-चौदह की तो थी। इतनी छोटी का ?
हमारे यहाँ इतने का ही होता है।
और हाँ !तेरा ही कौन सासरा बचा है दुनिया में ?
उसने एक कातर दृष्टि से माँ को देखा और अन्दर चली गयी।
क्या हुआ इसे ?
कुछ नहीं, बीमार थी कई दिनों से।
क्या बीमारी थी ?
औरतों की बात है, तुम्हें क्या बताएं। माँ ने कहा तो मैं चुप हो गया. यह भी भली बात थी की औरतों की बात में मेरा क्या काम ? फिर यूँ भी एक छोटे से वाक्य में निहितार्थ क्या ढूंढना ?
पर सालों बाद वो खुद ही अधूरी बात का सूत्र थम गयी।
……………………
ऐं, छोटे लल्ला रंगीन अखबार है ?
अखबार, क्या करेगी ?
कुछ रखना है।
क्या ?
पेटीकोट।
नहीं है, मैं झूठ बोल गया। हांलाकि मेरे पलंग के गद्दे के नीचे खूब रंगीन अखबार रखे रहते थे। फिल्मों का बहुत शौक़ था मुझे, और अखबार में इतवार के इतवार एक रंगीन फ़िल्मी पन्ना आता था।
झूठ क्यों बोलते हो? गद्दे के नीचे रखे तो रहते हो। एक-दो दे दो।
ले मर ! मैंने झटके से हाथ पटका। आह !हाथ झंझनाता हुआ पलंग के पाये से जा टकराया। ये भी सपना था, टूट गया। सपने बहुत आते थे मुझे कहानियों में या सपनों में कहानियां। सपने और कहानियां मुझे आते थे और उन्हें लिखने का शऊर बड़ी बहन को।
बड़ी दी उन दिनों मानवीय रिश्तों के तमाम आकलन करती कहानियां लिख रही थीं। पर उसका आकलन करना बड़ा मुश्किल और पेचीदा काम था , ठीक वैसे ही जैसे बकरियों की सवारी पर कोई रेगिस्तान पार करना।
“कोटेड और अनकोटेड बातों के बीच की लकीर, सड़क के तारकोल में फंसे छोटे-छोटे पत्थरों की लिपि और किनारे तक जा कर डूबने वाले आसमान को पढने वाले एक रोज़ बड़े अकेले रह जाते हैं। “
या फिर ये
” पीछे उतर के देखो, तारीख़ में गहरे बहुत गहरे जा कर देखो दस, बीस, सौ, दो-सौ, चार-सौ बरस पीछे जा कर देखो कि एक शाहकार के पैदा होने के लिए और कितनों को पैदा होना पड़ता है। यकीं न आये तो पूछो मुमताज से की एक ताजमहल के पैदा होने के लिए किस-किस को पैदा होना पड़ा था। एक शाहजहाँ को, एक दारा को, एक औरंगज़ेब को, एक शुजा को …… और भी न जाने कौन-कौन ??”
पर उसमें ऐसी कोई खूबी नहीं थी। न वो मुमताज थी न किसी शाहकार को पैदा कर सकती थी। न वो कथ्य-अकथ्य के बीच की पंक्ति ही पढ़ पाई थी। न जीवन भर चलने वाली सड़कों में फंसे पत्थरों की लिपि। न ही डूबते आसमानों के किनारे। फिर भी अंततः बहुत अकेली रह गई थी वो। बहुत पहले ये भी मुझे बहन ने ही बताया था कि वो धीरे-धीरे अपना मानसिक संतुलन खोती जा रही है।
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